"अंहकार" और "पेट" जब बढ़ जाता है
तो 'इंसान" चाह कर भी "गले" नहीं मिल सकता..
रहते है आस पास मगर साथ नहीं होते
कुछ लोग जलते है मुझसे लेकिन ख़ाक नहीं होते!
कल फिर मैं चला गया वहां
जाने क्यूं पर गया तो गया
नज़ारा वैसा ना था पहले जैसा
जानी पहचानी आकृतियां अज़नबी थी
मैं चुप चाप जाकर बैठ गया वहीं
तुमको सुना करता था जहां बैठा
पर किसको सुनता ! तुम कहाँ थे
बस भीगी कोरो को बंद किया ही था
शुरू हो गई फुसफुसाहट उनकी
तैयार बैठे थे छिड़कने को नमक
ये देखो ! ये वही है ! बड़ा बनता था !
जाने क्या समझता था! अब पता चला
मैं निरीह सी आँखों से देखता रहा
निढाल सा पसरा रहा वही पर
करता भी तो क्या
मैं अकेला जो पड़ गया था !
बस उठ कर जाने में ही गनीमत समझी
दूर तलक सुनी उनके ठहाकों की आवाज़
"अज्ञात"
उदासी का ये पत्थर आँसुओं से नम नहीं होता
हज़ारों जुगनुओं से भी अँधेरा कम नहीं होता
कभी बरसात में शादाब बेलें सूख जाती हैं
हरे पेड़ों के गिरने का कोई मौसम नहीं होता
बहुत से लोग दिल को इस तरह महफूज़ रखते हैं
कोई बारिश हो ये कागज़ ज़रा भी नम नहीं होता
बिछुड़ते वक़्त कोई बदगुमानी दिल में आ जाती
उसे भी ग़म नहीं होता मुझे भी ग़म नहीं होता
ये आँसू हैं इन्हें फूलों में शबनम की तरह रखना
ग़ज़ल एहसास है एहसास का मातम नहीं होता
~~~~~~~~~~~~~~~~~~बशीरबद्र~~~~~~
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