Friday, February 26, 2016

प्रेम है कितना ?

कहो,
"प्रेम है कितना ?"
क्या हो ?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर,
कैसे कोई कह पाए “इतना”
प्रेम के अतिरिक्त ; जो भी है
प्राकृतिक, शाश्वत, कालातीत
है व्यक्त किसी न किसी पैमाने में
धरती का घनत्व,समुद्र का आयतन,
नभ की विरलता, जल की तरलता ,
हवा की गति,सूर्य का ताप,
सबका का है कुछ न कुछ माप
पर कहाँ है ?
ह्रदय के आकर्षण, मन की आतुरता
विरह, विकलता की कोई इकाई
प्रेम पर सापेक्षता का सिद्धांत भी लागू नहीं
नहीं बता सकते प्रेम लैला से ज्यादा ,
रोमियो से कम कि फरहाद के बराबर है
वो सब भी तो बस किस्से कहानी में दर्ज हैं

प्रेम का नहीं कोई विश्व रिकार्ड
कोई आंकड़े, सांख्यकी, खाता-बही

जिससे ज्ञात हो सके  प्रेम की पराकाष्ठा,
प्रेम की कोई प्रतियोगिता, कोई ईनाम नहीं,
चूँकि होती प्रेम में जीत -मात नहीं
प्रेम की कोई भाषा, कोई भूगोल नहीं होता
प्रेम का कोई गणित , कोई विज्ञान भी नहीं होता
अगर कुछ होता है तो
प्रेम का बस इतिहास होता है
व्यक्ति, व्यक्तित्व से भी इसका, कोई सरोकार नहीं होता
तभी तो ; कृष्ण को बस राधा ही जी पायी
बुद्ध होकर भी जो सिद्धार्थ ने न जाना,यशोधरा जान गयी
क्रूर हिटलर के दिल की थाह, जोसेफिन ने पायी
साहिर जो न बूझ पाया, अमृता की वो तड़प
इमरोज़ को समझ आयी
प्रेम की वास्तविकता है कि  “प्रेम है !”
चाहो तो है, न चाहो तो भी है
मानो तो है, न मानो तो भी है
समझो तो है, न समझो तो भी है
पा लो तो है, न पा सको तो भी है
प्रेम बस “है”
अब भी अगर जो पूछो “कितना?”, तो
"जितना महसूस कर सको बस उतना"

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